श्री कृष्ण भक्त श्री सूरदास जी की कहानी Hindi Story in Hindi - Hindi Kahaniyan हिंदी कहानियां 

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शुक्रवार, 20 सितंबर 2024

श्री कृष्ण भक्त श्री सूरदास जी की कहानी Hindi Story in Hindi

श्री कृष्ण भक्त श्री सूरदास जी की कहानी Hindi Story in Hindi 


श्री सूरदास जी महाभागवत, अलौकिक कवी, महात्यागी, अनुपम वैरागी और परम प्रेमी भक्त थे, महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी के शब्दों में वे 'भक्ति के सागर' थे और गोसाईं श्री विट्ठलनाथ जी के शब्दों में वे 'पुष्टिमार्ग के जहाज' थे। श्री सूरदास जी के द्वारा रचा गया सूरसागर ग्रन्थ काव्यामृत का असीम सागर है, जिसमें उन्होंने सवा लाख से अधिक पदों की रचना की थी। भगवान की लीलाओं का गायन ही उनकी अपार अचल और अक्षुण संपत्ति थी। Hindi Story in Hindi


श्री सूरदास जी का जन्म दिल्ली से कुछ दुरी पर सीही गांव में एक निर्धन ब्राह्मण के घर विक्रम संवत 1535 में वैशाख शुक्ल पंचमी के दिन हुआ था। बालक के जन्म के अवसर पर ऐसा  प्रतीत हुआ मानो धरती पर एक दिव्य ज्योति बालक सूरदास के रूप में उतरी, जिससे चारों और शुभ प्रकाश फ़ैल गया। ऐसा लगता था जैसे भगवती गंगा ने कलिकाल के प्रभाव को कम करने के लिए कायाकल्प किया है, शिशु सूरदास जी को देखकर उनके माता-पिता और समस्त गांव वाले आश्चर्यचकित रह गए। 

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जन्म के समय से ही श्री सूरदास जी के नेत्र बंद थे, वे देख नहीं सकते थे। जिसके कारण उनके माता-पिता को बहुत दुःख हुआ, परन्तु वे इस विषय में कुछ भी नहीं कर सकते थे, इसलिए वे इसे भगवान की इच्छा मानकर बालक का पालन-पोषण करने लगे। समय के साथ नेत्रहीन बालक के प्रति उनके पिता उदासीन रहने लगे तथा घर के अन्य लोग भी बालक की उपेक्षा करने लगे, जिससे बालक के मन में घर के प्रति वैराग्य का भाव उदय हो गया और उन्होंने गांव के बहार एकांत स्थान पर रहने का निश्चय किया। सूरदास जी घर से निकल पड़े, और गांव से थोड़ी दुरी पर एक सरोवर के किनारे एक पीपल के वृक्ष के निचे उन्होंने अपना निवास स्थिर किया। उस स्थान पर श्री सूरदास जी हमेशा भगवान के भजन गाया करते थे, धीरे-धीरे उनके अलौकिक और पवित्र संस्कार जाग उठे, इसके बाद वे लोगो को शगुन बताने लगे और आश्चर्यजनक रूप से उनकी बताई बातें सही साबित होती थी। 


एक दिन गांव के जमींदार की गाय खो गयी, सूरदास जी ने उस गाय का ठीक-ठीक पता बता दिया। इस चमत्कार से वह जमींदार बहुत प्रभावित हुआ और उसने उस स्थान पर उनके लिए रहने के लिए एक झोंपड़ी बनवा दी। इस घटना के बाद सूरदास जी का यश चारों ओर फैलने लगा, दूर-दूर से लोग उनके पास शगुन पूछने आने लगे।  सूरदास जी के मान और प्रतिष्ठा में दिनोदिन वृद्धि होने लगी, जिसके कारण और अधिक लोग उनके पास आने लगे, जिससे उनके भजन में बाधा उत्पन्न होने लगी। तब सूरदास जी ने विचार किया की जिस मोह-माया से उपराम होने के लिए मैंने घर का त्याग किया था, वह तो पीछा ही करती आ रही है, अतः भजन में विघ्न उत्पन्न होते देखकर उन्होंने वह स्थान भी छोड़ दिया। Hindi Story in Hindi


इसके बाद श्री सूरदास जी मथुरा आ गए, परन्तु वहाँ पर उनका मन नहीं लगा, इसलिए वे रेणुकाक्षेत्र चले गए जहाँ पर उन्हें संतो और महात्माओं का सत्संग मिला। परन्तु उस पवित्र स्थान पर उन्हें एकांत का आभाव बहुत खटकता था, इसलिए वे उस स्थान (रेणुकाक्षेत्र) से निकल कर वहाँ से तीन मील दूर पश्चिम की ओर यमुना तट के गऊघाट पर निवास करने लगे। सूरदास जी वहाँ पर काव्य और संगीतशास्त्र का अभ्यास करने लगे, जिसके बाद एक महात्मा के रूप में सूरदासजी की ख्याति दूर-दूर तक फैलने लगी।  


उस समय पुष्टि संप्रदाय के आदि आचार्य श्री वल्लभाचार्य अपने निवास स्थान अड़ैल से ब्रजयात्रा के लिए निकले। उनकी विद्वता, शास्त्रज्ञान और दिग्विजय की कहानी से उत्तर भारत के सभी लोग परिचित थे।  महाप्रभु ने विश्राम के लिए गऊघाट पर ही अपना अस्थाई निवास बनाया। श्री सूरदास जी ने श्री वल्लभाचार्य जी के दर्शनों की उत्कट इच्छा प्रकट की, श्री वल्लभाचार्य भी सूरदास जी से मिलना चाहते थे। पूर्व जन्म के शुद्ध और पवित्र संस्कारो से प्रेरित होकर श्री सूरदास जी, श्री वल्लभाचार्यजी के दर्शन करने गए और दूर से ही उनकी चरण वंदना की। आचार्य ने उन्हें आदरपूर्वक अपने पास बैठा लिया, उनके पवित्र स्पर्श से सूरदास जी के अंग-अंग भगवद्भक्ति की रसामृत लहरी में निमग्न हो गए। 


श्री सूरदास जी ने श्री वल्लभाचार्य जी को विनय के पद सुनाए, भक्त ने भगवान के सामने स्वयं को पतित घोषित कर उनकी कृपा प्राप्त करना चाहा था, उनके पदों का यही अभिप्राय था। तब श्री वल्लभाचार्य जी ने कहा की तुम भगवान के भक्त होकर इस प्रकार क्यों घिघियाते हो, अपने पदों में भगवान का यश गाओ और उनकी लीलाओं का वर्णन करो। आचार्यजी के इस आदेश से सूरदास जी बहुत प्रोत्साहित हुए, उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा - मैं भगवान की लीलाओँ का रहस्य नहीं जानता। तब आचार्यजी ने सूरदासजी को सुबोधनी सुनायी और उन्हें दीक्षा प्रदान की। श्री वल्लभाचार्य जी तीन दिनों तक गऊघाट पर रहकर गोकुल चले आये, इस दौरान श्री सूरदास जी भी उनके साथ ही रहे। गोकुल में सूरदास जी श्री नवनीतप्रिय का दर्शन करके लीला के सरस पद रचकर उन्हें सुनाने लगे। Hindi Story in Hindi


इसके बाद सूरदास जी आचार्यजी के साथ गोकुल से गोवर्धन चले आये जहाँ उन्होंने श्रीनाथजी का दर्शन किया और सदा के लिए उन्ही की शरण में जीवन व्यतीत करने का संकल्प ले लिया। भगवान श्रीनाथजी के प्रति उनकी अपार श्रद्धा थी, महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य जी की कृपा से श्री सूरदास जी को श्रीनाथजी के मंदिर में प्रधान कीर्तनकार नियुक्त किया गया। 


गोवर्धन आने पर श्री सूरदास जी ने चंद्र सरोवर के निकट परासोली में अपना स्थाई निवास बनाया, जहाँ से वे प्रतिदिन श्रीनाथजी के दर्शन करने जाते थे, और नए-नए पदों की रचना करके बड़े भक्ति भाव से उन्हें श्रीनाथजी को समर्पित किया करते थे। धीरे-धीरे ब्रज के अन्य सिद्ध महात्मा और पुष्टिमार्ग के भक्त कवी नंददास जी, कुम्भनदास जी और गोविंददास जी आदि से उनका संपर्क बढ़ने लगा। इस बिच वे कभी-कभी श्री नवनीतप्रिय (श्री कृष्ण) के दर्शन करने के लिए गोकुल भी जाया करते थे। 


एक बार श्री सूरदासजी श्री नवनीतप्रिय (श्री कृष्ण) का दर्शन करने गोकुल गए, और उन्होंने श्री नवनीतप्रिय (श्री कृष्ण) के श्रृंगार का ज्यों का त्यों वर्णन कर दिया। तब गोसाई विट्ठलनाथ के पुत्र गिरधर जी ने गोकुलनाथ के कहने पर सूरदासजी की परीक्षा लेनी चाही। उन्होंने भगवान को वस्त्रों के स्थान पर मोतियों की मालाएं पहनाकर अद्भुत श्रंगार किया। तब श्री सूरदास जी ने अपने दिव्य चक्षुओं से देखकर भगवान के श्रंगार में प्रयोग की गयी मोतियों की सभी मालाओं का विस्तार से वर्णन कर दिया। भक्त की परीक्षा पूरी हो गयी, तथा भगवान ने नेत्रहीन महाकवि की प्रतिष्ठा अक्षुण रखी। Hindi Story in Hindi


श्री सूरदासजी त्यागी, प्रेमी और विरक्त भक्त थे, तथा वे महाप्रभु श्री वल्लभाचार्य के सिद्धांतो के पूर्ण ज्ञाता थे। उनकी मानसिक भगवद्सेवा सिद्ध थी, वे महाभागवत थे। उन्होंने हमेशा अपने उपास्य श्री राधारानी और श्रीकृष्ण का यश-वर्णन और गायन ही श्रेय-मार्ग समझा। भारतीय काव्य साहित्य में गोपी प्रेम की धव्जा फहराने में वे अग्रगण्य माने जाते है। उन्होंने पचासी साल की आयु में गोलोक धाम प्रस्थान किया। 


अंत समय में श्री सूरदास जी का ध्यान युगलस्वरूप श्री राधा मनमोहन में लगा हुआ था। श्री विट्ठलनाथ के यह पूछने पर की आप की चित्तवृत्ति कहाँ है, उन्होंने कहा मैं राधारानी की वंदना कर रहा हूँ, जिनसे नंदनंदन प्रेम करते है। चतुर्भुजदास जी ने कहा - आपने असंख्य पदों की रचना की पर आपने श्री महाप्रभु के यश का वर्णन नहीं किया। तब श्री सूरदास जी की गुरु निष्ठा बोल उठी, सूरदास जी बोले मैं तो उन्हें (श्री वल्लभाचार्य जी) साक्षात् भगवान का ही स्वरूप समझता हूँ, मेरे लिए गुरु और भगवान में कोई अंतर नहीं है, मैंने तो जीवनभर उन्हीं का यश गाया है। चतुर्भुजदास जी की विशेष प्रार्थना पर श्री सूरदास जी ने अपने अंत समय में उपस्थित भगवदीयो को पुष्टिमार्ग के मुख्य सिद्धांत संक्षेप में सुनाए। उन्होंने कहा गोपीजनों के भाव से भावित भगवान के भजन से पुष्टिमार्ग के रस का अनुभव होता है, तथा इस मार्ग में केवल प्रेम की ही मर्यादा है। इसके बाद श्री सूरदास जी ने श्रीराधाकृष्ण की रसमयी छवि का ध्यान किया और सदा के लिए ध्यानस्थ हो गए।  Hindi Story in Hindi


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