भीष्म पितामह के जन्म की कहानी - Hindi Story - Hindi Kahaniyan हिंदी कहानियां 

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गुरुवार, 5 सितंबर 2024

भीष्म पितामह के जन्म की कहानी - Hindi Story

भीष्म पितामह के जन्म की कहानी - Hindi Story


राजा शांतनु हस्तिनापुर के सम्राट थे। वे राजा प्रतीप के पुत्र थे। वे एक वीर, धर्मनिष्ठ और न्यायप्रिय राजा के रूप में प्रसिद्ध थे। एक दिन, शांतनु शिकार के लिए वन में गए। वहां उन्होंने गंगा नदी के तट पर एक अद्वितीय सुंदर स्त्री को देखा, जो वस्त्रों में ओढ़ी हुई गंगा नदी के जल के समान सुंदर और शांत प्रतीत हो रही थी। शांतनु उसके सौंदर्य से मोहित हो गए और उन्होंने उससे विवाह का प्रस्ताव रखा।

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वह स्त्री वास्तव में गंगा देवी थीं, जो पृथ्वी पर आई थीं। गंगा ने शांतनु के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया, लेकिन एक शर्त रखी। शर्त यह थी कि शांतनु कभी भी उनके किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और न ही उनसे किसी प्रश्न का उत्तर मांगेंगे, यदि शांतनु ने कभी उनके किसी कार्य में हस्तक्षेप किया तो वे तत्काल उन्हें छोड़कर चली जाएँगी। शांतनु, जो गंगा के प्रेम में पूरी तरह से डूब चुके थे, ने यह शर्त स्वीकार कर ली और दोनों का विवाह हो गया।

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देवी गंगा से विवाह करके महाराज शांतनु बहुत प्रसन्न थे। विवाह के कुछ समय बाद देवी गंगा ने एक पुत्र को जन्म दिया। शांतनु अपने पुत्र को देखने देवी गंगा के कक्ष की ओर जा ही रहे थे, तभी उन्हें दासी से ज्ञात हुआ की देवी गंगा अपने पुत्र को लेकर वन की ओर गयी हैं। शांतनु ने चिंता और उत्सुकता वश देवी गंगा का पीछा किया। वन में महाराज शांतनु यह देखकर दंग रह गए की देवी गंगा ने उनके नवजात पुत्र को नदी की विशाल धारा में बहा दिया। महाराज शांतनु अपने पुत्र को बचाना चाहते थे, परन्तु देवी गंगा को दिए गए वचन के कारण वे विवश थे, इसलिए वे चुपचाप अपने पुत्र को मरता देखते रहे और अपने ह्रदय पर पत्थर रखकर वापस लौट आए। 

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समय के साथ देवी गंगा ने छः और पुत्रों को जन्म दिया और सभी को इसी प्रकार नदी की धारा में बहा दिया।शांतनु, जिन्होंने अपनी पत्नी से वादा किया था कि वे उनके किसी भी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे, इस स्थिति को देखकर बहुत दुखी थे, लेकिन उन्होंने अपना वचन निभाया और गंगा से कोई प्रश्न नहीं किया।


जब देवी गंगा ने आठवें पुत्र को जन्म दिया और उसे भी नदी में बहाने का प्रयास किया, तो शांतनु के धैर्य का बाँध टूट गया। वे अपनी पत्नी के इस कार्य से इतने व्यथित हो गए कि उन्होंने अपना वचन तोड़ दिया और देवी गंगा को यह कार्य करने से रोक दिया और उनसे कहा - देवी गंगा तुम एक एक करके मेरे सात पुत्रो की हत्या कर चुकी हो परन्तु मैं तुम्हें इस आठवें पुत्र की हत्या नहीं करने दूंगा। तुम कैसी निर्दयी माँ हो जो अपने ही पुत्रों की हत्या किये जा रही हो। 


देवी गंगा बोली मैंने हमारे पुत्रों की हत्या नहीं की है, बल्कि मैंने तो उन्हें श्राप से मुक्त किया है। महाराज शांतनु ने पूछा कैसा श्राप - मुझे सारी कथा विस्तार से बताओ। 


देवी गंगा बोलीं - महाराज हमारे ये आठों पुत्र वही आठ वसु हैं, जिन्हें स्वर्ग के देवताओं से भी ऊँचा स्थान प्राप्त है। पिछले जन्म में इन सभी ने ऋषि वशिष्ठ के आश्रम से दिव्य गाय कामधेनु को चुराने का प्रयास किया था। जब ऋषि वशिष्ठ को इस बात का पता चला तो उन्होंने उन सभी को धरती पर मनुष्य रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया। सभी वसुओं ने ऋषि वशिष्ठ से क्षमा मांगकर उनसे श्राप से मुक्त करने के लिए विनती की। 

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ऋषि वशिष्ठ को उन सभी पर दया आ गयी वे बोले - आप सभी में से सात वसु मनुष्य रूप में जन्म लेकर तुरंत मुक्त हो जायेंगें, लेकिन जिसने इस चोरी का नेतृत्व किया था उसे अपना पूरा एक जन्म मनुष्य रूप में ही बिताना होगा उसके बाद ही उसकी मुक्ति हो सकेगी। 


देवी गंगा बोली - इन सभी ने मुझसे श्राप मुक्ति के लिए विनती की थी, तब मैंने इन्हे वचन दिया था की मैं इन सभी को जन्म देकर इन्हे तुरंत इस श्राप से मुक्ति दिला दूंगी। मैंने एक-एक करके सात वसुओं को उनके श्राप से मुक्ति दिला दी। परन्तु इस आठवें पुत्र के जन्म के बाद आपने अपना वचन भंग कर दिया, और इसकी मुक्ति को रोक दिया। अब आपके इस आठवें पुत्र को अपना पूरा जीवनकाल जीना होगा, यह वही आठवाँ वसु है, जिसे ऋषि वशिष्ठ ने सबसे अधिक समय तक मनुष्य रूप में रहने का श्राप दिया था।


महाराज - आपने अपना वचन भंग किया है इसलिए मुझे अब आपको छोड़कर जाना होगा, मैं अपने साथ आपके इस पुत्र को भी लेकर जा रही हूँ। समय आने पर मैं आपको इसे वापस लौटा दूंगी। ऐसा कहकर देवी गंगा अपने पुत्र को लेकर स्वर्ग लौट गयी। 

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देवी गंगा ने अपने पुत्र को देवव्रत नाम दिया और उन्हें प्रारंभिक शिक्षा के लिए देवों और ऋषियों के पास भेजा। देवगुरु बृहस्पति ने उन्हें वेदों का ज्ञान दिया, और परशुराम जैसे महान गुरु ने उन्हें शस्त्रविद्या सिखाई। देवव्रत ने वेद, शास्त्र, राजनीति और धर्म में प्रवीणता प्राप्त की और शीघ्र ही वे अपने समय के महानतम योद्धाओं में से एक बन गए। देवव्रत, जो बाद में भीष्म पितामह के नाम से विख्यात हुए, एक असाधारण बालक थे।


देवव्रत का जीवन तब और महत्वपूर्ण हो गया जब उन्होंने एक महान प्रतिज्ञा ली, जिसने उन्हें भीष्म पितामह बना दिया। यह प्रतिज्ञा उनके पिता राजा शांतनु के प्रेम और राज्य के लिए उनका महान त्याग था। यह प्रतिज्ञा इस प्रकार थी:

जब शांतनु ने सत्यवती नामक मछुआरी से विवाह करने की इच्छा जताई, तब सत्यवती के पिता ने यह शर्त रखी थी कि सत्यवती का पुत्र ही हस्तिनापुर का राजा बनेगा, इस शर्त के कारण शांतनु असमंजस में पड़ गए। देवव्रत, जो अपने पिता के सुख के लिए किसी भी सीमा तक जा सकते थे, ने सत्यवती के पिता से विवाह की शर्त को स्वीकार करने का प्रस्ताव किया। उन्होंने प्रतिज्ञा ली कि वे न केवल हस्तिनापुर के सिंहासन का त्याग करेंगे, बल्कि आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन करेंगे और कभी विवाह नहीं करेंगे, ताकि सत्यवती के पुत्रों को भविष्य में किसी प्रकार की चुनौती का सामना न करना पड़े।

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इस महान त्याग और प्रतिज्ञा के कारण देवव्रत को "भीष्म" नाम से जाना गया, जिसका अर्थ है "भीषण प्रतिज्ञा करने वाला"। देवताओं ने उनके इस अद्वितीय बलिदान से प्रसन्न होकर उन्हें इच्छामृत्यु का वरदान दिया। इस वरदान के अनुसार, भीष्म जब तक स्वयं मृत्यु को नहीं बुलाएँगे, तब तक वे जीवित रहेंगे।


भीष्म पितामह का जन्म और जीवन भारतीय महाकाव्य महाभारत का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उनका जन्म एक देवता के रूप में हुआ था, और उन्होंने अपने जीवन में धर्म, त्याग, और कर्तव्य के प्रति अपनी अद्वितीय निष्ठा दिखाई। उनकी प्रतिज्ञा, उनके त्याग, और उनके बलिदान ने उन्हें इतिहास में अमर कर दिया। भीष्म पितामह का जीवन हमें यह सिखाता है कि सच्चे नायक वही होते हैं जो अपने धर्म और कर्तव्यों के प्रति सच्चे रहते हैं, चाहे परिस्थितियाँ कितनी भी कठिन क्यों न हों।

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