कबीरदास जी और दिल्ली का सुल्तान सिकंदर लोधी की अध्बुध कहानी (भाग 5)
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जब काशी नरेश ने पुनः कबीरदास जी की शरणागति ग्रहण कर ली, तो काशी में कबीरदास जी की की प्रतिष्ठा पहले से कई गुना अधिक बढ़ गयी, काशी नगरी में कोई भी कबीर दास जी का विरोध करने वाला नहीं बचा था। लेकिन काशी में कुछ ऐसे विमुख लोग भी थे, जो कबीरदास जी की प्रतिष्ठा से प्रसन्न नहीं थे, उनसे कबीरदास जी की कीर्ति सही नहीं जा रही थी, वे लोग किसी भी प्रकार से कबीरदास जी का अहित करना चाहते थे।
उनमे से किसी ने कहा की कबीरदास को सबक सिखाने का एक बहुत अच्छा उपाय है, इस समय दिल्ली का सुल्तान सिकन्दर लोधी काशी आया हुआ है, यदि हम कबीरदास की शिकायत उससे दें, तो सुल्तान कबीरदास को अवश्य दंड देगा, क्योकि कबीरदास मुसलमान होकर भी हिन्दू देवताओं की पूजा करता है।
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उन सभी लोगों को यह विचार बहुत पसंद आया, वे सभी लोग सिकन्दर लोधी के दरबार में दिन के समय जलती हुई मशाल लेकर पहुंचे। सभी ने दरबार में पहुंचकर सिकन्दर लोधी को सलाम किया। सुल्तान ने उनसे पूछा तुम लोग दिन के समय मशाल जलाकर क्यों आये हो, वे लोग बोले सुल्तान आपके राज में इतनी अंधेर हो रखी की दिन के समय भी मशाल जलाने के जरुरत पड़ने लगी है।
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सुल्तान ने पूछा कौन अंधेर कर रहा है हमारे राज में। वे लोग बोले एक कबीर अली नाम का व्यक्ति है, जो पेशे से जुलाहा है, लेकिन वह मुस्लमान होने के बावजूद कंठी, तिलक धारण करता है, राम नाम का जप करता है, और अन्य लोगो को भी राम नाम जपने के लिए बोलता है, उसे देखकर कई अन्य मुस्लमान भी राम नाम जपने लगे है। वह एक पाखंडी है, जो झूठे चमत्कार दिखाकर लोगों को भ्रमित कर रहा है। यह सब सुनकर सिकन्दर लोधी क्रोधित हो गया, और उसने अपने सैनिको आदेश दिया जाओ उस कबीर को पकड़कर लाओ और मेरे दरबार में हाजिर करो।
सुल्तान के सैनिक तत्काल कबीरदास जी के घर पहुंचे, उस समय कबीरदास जी सत्संग कर रहे थे। कबीरदास जी की पत्नी लोई को जैसे ही पता लगा की सुल्तान के सैनिक आएं है, उसने तुरंत जाकर कबीरदास जी को बताया की सुल्तान के सैनिक आपको पकड़ने के लिए आ रहें है। कबीरदास जी बोले, घबराओ मत जो भी होगा सो देखा जायेगा। सैनिक कबीरदास जी को पकड़कर ले जाने लगे तो कबीरदास जी सहजता से उनके साथ चल दिए।
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सैनिको ने कबीरदास जी को सुल्तान दरबार में ले जाकर खड़ा कर दिया। सुल्तान के दरबार में यह रिवाज था की दरबार में आते ही सभी लोग सबसे पहले सुल्तान को कमर झुकाकर सलाम किया करते थे, लेकिन कबीरदास जी ने सुल्तान को कोई सलाम नहीं किया। यह देखकर सुल्तान के दरबारियों को क्रोध आ गया, वे बोले गुस्ताख़ तेरी इतनी हिम्मत की तूने सुल्तान को सलाम नहीं किया। तब कबीरदास जी बोले मेरे मालिक भगवान श्री राम हैं, वे ही सारे जगत के बादशाह है, इतने बड़े बादशाह का सेवक होकर मैं किसी छोटे-मोटे सुल्तान को सलाम नहीं कर सकता। मेरा सिर मेरे प्रभु श्री राम और मेरे गुरुदेव के अलावा किसी के सामने नहीं झुक सकता।
यह सुनकर सुल्तान का क्रोध साँतवें आसमान पर पहुँच गया, वो बोला इस मक्कार की अकड़ अभी निकालो, और इसे जंजीरों से बांध कर दरिया में फेंक दो। सुल्तान के आदेश पर कबीरदास जी को जंजीरों से बांध कर और साथ में बड़ा सा पत्थर बांध कर गंगाजी की विशाल धारा में डाल दिया गया। उस समय कबीरदास जी मुस्कुराते हुए लगातार राम नाम का जाप कर रहे थे। कबीरदास जी ने भगवान श्री राम से प्रार्थना की, हे प्रभु आपका नाम लेने से तो जीव का भवबंधन छूट जाता है, तो क्या मेरे ये साधारण जंजीरों वाले बंधन नहीं छुटेंगें। जैसे ही कबीरदास जी ने भगवान श्री राम से यह प्रार्थना की, उनकी सारी जंजीरें स्वतः ही खुल गयी और कबीरदास जी उनसे मुक्त हो गए और तैरकर गंगाजी के किनारे आकर खड़े हो गए।
सुल्तान ने पूछा क्या हुआ क्या कबीर मर गया, सैनिकों ने कहा नहीं सुल्तान वह तो नदी के किनारे पर खड़ा है, शायद जंजीरें खुल गयी होगी और वह तैरकर बाहर आ गया। सुल्तान बोला उसे फिर से पकड़कर लाओ और उसे आग में जला दो। कबीरदास जी को फिर से पकड़कर लाया गया और इस बार उन्हें भक्त प्रहलाद की भांति लकड़ियों के बड़े से ढेर पर बैठाकर आग लगा दी गयी।
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सुल्तान से कबीरदास जी कहा यदि तू राम का नाम लेना छोड़कर मुझे सलाम करता है, तो तेरी जान बक्शी जा सकती है वर्ना नहीं। कबीरदास जी बोले "जिसका रक्षक श्री राम हों उसे कोई मार नहीं सकता, प्रभु जगन्नाथ का दास जगत से हार नहीं सकता"। यह सुनते ही सुल्तान ने कहा, जला दो इस गुस्ताख़ को, अब सारी लकड़ियों में आग लगा दी गयी, लकड़ियां धू-धू कर जलने लगी, कबीरदास जी राम नाम का जाप करने लगे। चमत्कारिक रूप से इस भीषण अग्नि में भी कबीरदास जी का कुछ नहीं बिगड़ा, अग्नि उनके वस्त्रों का एक धागा तक नहीं जला सकीं।
सारी लकड़ियाँ जलकर राख हो गयी और कबीरदास जी उस राख के ढेर के ऊपर सही सलामत बैठे थे। कबीरदास जी पहले इतने गोरे नहीं थे, परन्तु आग में तपने के बाद कबीर दस जी का स्वरूप ठीक उसी तरह दमकने लग गया था, जैसे आग में तप कर सोना दमकता है, कबीरदास जी के पुरे शरीर से एक अलौकिक आभा प्रकट होने लग गयी थी। कबीरदास जी को इस प्रकार अग्नि में सही सलामत प्रकट होता देख उनके भक्त कबीरदास जी की जय-जयकार करने लगे। [ आज भी कबीर चोरा में उनका वास्तविक चित्र विराजमान है, जिसमें उनका अवलौकिक स्वरूप दिखाई देता है ]।
जब सुल्तान को पता चला की की अग्नि भी कबीरदास जी का कुछ नहीं बिगाड़ पायी, तो उसने सोचा जरूर मेरे ही कुछ लोग कबीर से मिले हुए है, जो उसे बचा रहे है। इसलिए इस बार उसने आदेश दिया की कबीरदास को मेरे सामने हाथी से कुचल दिया जाये। अब कबीरदास जी को जंजीरों से बांध कर लाया गया और एक मदमस्त हाथी को लेकर एक महावत कबीर दस जी को कुचलने के लिए आगे बढ़ा।
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जैसे ही हाथी को कबीरदास जी को कुचलने के लिए आगे बढ़ाया जाता वैसे ही हाथी चिंघाड़कर पीछे हटता, महावत बार-बार हाथी को आगे बढ़ाता और हाथी बार-बार पीछे हटता। यह सब देखकर सिकंदर ने महावत से पूछा यह सब क्या हो रहा है, यह हाथी आगे क्यों नहीं बढ़ता। महावत बोला, सुल्तान कबीर के आगे एक भयानक सिंह बैठा हुआ है, जैसे ही हाथी आगे बढ़ता है, वैसे ही वह सिंह अपने पंजे उठाकर गुर्राता है, जिससे हाथी डरकर पीछे हट जाता है। सुल्तान बोला कहाँ है सिंह, तुम्हे मतिभ्रम हो गया है, हटो अब मैं हाथी चलाऊंगा।
अब स्वयं सुल्तान सिकन्दर लोधी हाथी को लेकर कबीरदास जी को कुचलने के लिए आगे बढ़ा। जैसे ही वह कबीर दास जी के पास पंहुचा, उसे साक्षात भगवान नरसिंह के भयानक स्वरूप के दर्शन हुए। उन्हें देखकर सिकन्दर लोधी की रूह काँप गयी और वह डरकर हाथी से नीचे कूद पड़ा। उसने किसी सुना था की हिन्दुओं के यहाँ नरसिंह नाम के भगवान हुए थे, जिन्होंने अपने भक्त की रक्षा के लिए एक राक्षस का वध किया था। उसे यह समझ में आ गया था की ये वही नरसिंह भगवान हैं और कबीर की रक्षा के लिए आएं है।
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कबीर दास जी तो स्वयं ही भक्त प्रहलाद के अवतार थे। सिकन्दर लोधी अपनी रक्षा के लिए कबीरदास जी के चरणों में गिर गया और उनसे अपने किये हुए कृत्यों के लिए क्षमा याचना करने लगा, उसने कई बार क्षमा याचना की, अंततः कबीरदास जी को उस पर विश्वास हुआ की यह सही में अपने कार्यो के लिए क्षमा मांग रहा है। तब उन्होंने हाथ जोड़कर नरसिंह भगवान से प्रार्थना करी की वे सुल्तान को क्षमा कर दें। कबीरदास जी की प्रार्थना सुनकर नरसिंह भगवान अंतर्ध्यान हो गए।
सुल्तान ने पूछा वो भयानक नरसिंह कौन थे, कबीरदास बोले यही मेरे प्रभु श्री राम थे, जो नरसिंह का रूप लेकर आये थे, वे हमेशा अपने भक्तों की रक्षा करते हैं, तूने मुझे सताया था, इसलिए वे तुझे दंड देने आये थे। अब सिकंदर लोधी कबीरदास जी का भक्त बन चुका था, वो कबीर दास जी से कहने लगा की मैं आपकी कुछ सेवा करना चाहता हूँ, आपको कुछ उपहार देना चाहता हूँ, यदि आप कहें तो मैं आपके नाम सैंकड़ो गावों की जागीर लिख दूँ, आप जितना कहें उतना धन, हाथी, घोड़े मैं आपको दान करना चाहता हूँ।
कबीर दास जी बोले मुझे इनमे से कुछ भी नहीं चाहिए। तुम्हारे पास जो कुछ भी है वह सब लूटा हुआ है, लोगों को सता कर छीना हुआ है, इसलिए तुम्हारा धन इस योग्य भी नहीं है की कहीं पर सेवा में उपयोग हो सके। यह कहकर कबीरदास जी आनंद पूर्वक अपने घर काशी लौट आये।
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जब सुल्तान के सैनिक कबीर दास जी की लेकर गए थे, तो काशी के सभी संत लोग बहुत घबरा गए थे, की कहीं सुल्तान कबीरदास जी को मृत्यु दंड न दे दे, परन्तु जब उन्हें ज्ञात हुआ की कबीर दास जी तो सिकंदर लोधी को भी शिष्य बनाकर आएं है, तो संतो में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी। फिर तो दूर-दूर से संत जन कबीर दास जी मिलने आने लगे। सभी संतो ने कबीरदास जी को खूब आशीर्वाद दिए और इसके बाद कबीरदास जी की काशी नगरी में एक बार फिर जय-जयकार हो गयी।
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