रणछोरदास पागी जिससे खौफ खाता था पाकिस्तान Hindi Story
यह एक सच्ची कहानी है, भारत माता के एक ऐसे सपूत की जो भारत की पश्चिमी सिमा पर थार के रेगिस्तान में भारत की सरहदों की पहरेदारी करता था, उसके रहते कभी कोई पाकिस्तानी भारत की सरहदों में नहीं घुस पाया। उसकी मदद से 1965 और 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को नाकों चने चबवा दिए। उसकी वजह से पाकिस्तान की सेना इतनी हताश हो चुकी थी की उसने उस ज़माने में पचास हजार रूपए का इनाम इस शख्स पर घोषित किया था। यह एक एकमात्र ऐसा शख्स था जिसने अपनी एक सौ आठ साल की उम्र तक भारतीय सेना में नौकरी की और उसके बाद स्वैछिक सेवानिवृति ले ली। और उसके बाद भी अपने जीवन की आखरी साँस तक भारतीय सेना की सेवा की। यह कहानी है रणछोरदास रबारी की जिन्हे रणछोरदास पागी के नाम से भी जाना जाता है।
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रणछोरदास रबारी का जन्म सन 1901 में पाकिस्तान के एक छोटे से गाँव पिथापुर में हुआ था। यह गांव भारत के गुजरात राज्य के बनासकांठा जिले के निकट भरत और पाकिस्तान की सरहद पर स्थित है। इनकी माता का नाम नाथीमा और पिता का नाम सावाभाई था। इनकी बहुत छोटी उम्र में ही इनके पिता का देहांत हो गया था, जिसके बाद इनकी माता सावाबाई ने ही इनकी देखभाल की।
1901 में रणछोरदास रबारी के जन्म के समय इनका गाँव बहुत संपन्न हुआ करता था, उस समय इनका गांव वृहद भारत के अंतर्गत आता था क्योकि उस समय तक भारत और पाकिस्तान का बँटवारा नहीं हुआ था। रणछोरदास रबारी भी एक संपन्न परिवार से थे, गाँव में उनके पास कई सौ एकड़ जमीन और सैंकड़ों पशु जैसे गाय, भैंस, ऊँट, भेड़, बकरी आदि थे। उनका गाँव थार के रेगिस्तान के अंतर्गत आता था, वहाँ सब तरफ बालू के रेतीले टीलों के अलावा कुछ नहीं था, इसलिए वहां खेती नहीं की जा सकती थी इसलिए उनका परिवार और गाँव के सभी लोग पशुपालन करके ही अपना जीवनयापन किया करते थे। इसलिए बालक रणछोरदास भी बचपन से ही पशुओं के बिच ही रहा करते थे और इसी से उनका जीवनयापन हो रहा था।
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विवाह योग्य आयु होने पर उनकी माता ने उनका विवाह कर दिया, उनकी पत्नी का नाम सगनाबेन था। सगनाबेन से उन्हें दो पुत्र और दो पुत्रियों की प्राप्ति हुई। रणछोरदास रबारी एक खुशहाल जीवन व्यतीत कर रहे थे। वक्त का पहिया धीरे-धीरे चल रहा था कुछ वर्षो बाद उनके बच्चे समझदार और गए और अपने पिता के काम में हाथ बटाने लगे। सब कुछ सामान्य चल रहा था परन्तु 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान का बँटवारा हो गया, इस घटना ने उनके जीवन को पूरी तरह बदल दिया। बँटवारे के बाद उनका गाँव पाकिस्तान के हिस्से में चला गया था। अब उनका गाँव भारत और पाकिस्तान की सरहद पर स्थित था। सरहद पर होने के कारण उनके गाँव में पाकिस्तानी सेना की आवाजाही बहुत बढ़ गयी।
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भारत पाकिस्तान में विभाजन होने के बाद पाकिस्तान में हिन्दुओं पर अत्याचार बहुत बढ़ गए। पाकिस्तानी सेना के लोग अकसर उनके गाँव में घुस आते और लोगों को बेवजह परेशान करने लगते। कई महीनों तक ऐसा ही चलता रहा। एक दिन रणछोरदास रबारी के घर में पाकिस्तानी सेना के तीन सैनिक घुस आये और उनकी पत्नी और बच्चियों से अभद्रता करने लगे। यह देखकर रणछोरदास रबारी की आँखों में खून उतर आया और उन्होंने अपने दोनों पुत्रों और गाँव के कुछ लोगो के साथ मिलकर उन तीनों पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया। उसी दिन उन्होंने पाकिस्तान छोड़कर भारत में बसने का निश्चय कर लिया।
उसी दिन रणछोरदास रबारी अपने परिवार और सभी पशुओं को साथ में लेकर भारत की और रवाना हो गए। उनका गाँव भारत और पाकिस्तान के बॉर्डर पर स्थित था। उस समय बॉर्डर पर इतना अधिक पहरा भी नहीं होता था इसलिए उस समय लोग बड़ी आसानी इधर से उधर आया जाया करते थे। कई घंटे चलने के बाद रणछोरदास रबारी और उनका परिवार पाकिस्तान में स्थित अपने पैतृक घर को छोड़कर भारत के गुजरात राज्य के राघानेसडा गाँव में आ कर बस गए।
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भारत में आने के बाद वे लोग पाकिस्तानी सेना के लोगो से तो बच गए थे, पर यहां भारत में उनके पास रहने का कोई ठिकाना नहीं था। कुछ दिन उन्होंने यूँ ही खुले आसमान के निचे बिताये। उसके बाद उनका परिवार रेगिस्तानी जमींन पर एक छप्पर बना कर रहने लगा। इसके बाद कई महीनों की मेहनत से उन्होंने एक मिटटी का घर भी बना लिया। अब उनका जीवन कुछ हद तक सामान्य हो गया था, वे पहले की ही तरह पशुपालन करके अपना जीवन यापन करने लगे। रणछोरदास रबारी और उनके परिवार को पाकिस्तान में स्थित अपने पैतृक घर की बहुत याद आती थी, उसे छोड़ कर आना उनके लिए आसान नहीं था। परन्तु उन्हें तो बस इसी बात की खुशी थी की भारत में आकर वे उनका परिवार अब सुरक्षित थे।
यहां भारत में भी कुछ लोग रणछोरदास रबारी को बहुत अच्छी तरह से जानते थे, क्योकिं कुछ समय पहले तक यह पूरा इलाका एक भारत देश के ही अंतर्गत आता था। भारत में आने के बाद रणछोरदास रबारी ने अपनी विलक्षण प्रतिभा से यहाँ अपने आस-पास के लोगों की भी बहुत मदद की, जब भी उनके पशु रेगिस्तान में कहीं खो जाते तो रणछोरदास रबारी रेत में उनके पैरो के निशान देखकर उन्हें तुरंत ढूंढ लेते।
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रणछोरदास रबारी के विलक्षण हुनर की खबर जब बनासकांठा के पुलिस अधीक्षक वनराज सिंह झाला को मिली तब वे रणछोरदास रबारी से मिलने आये, और उन्होंने रणछोरदास के हुनर की परीक्षा लेनी चाही। रेगिस्तान की रेत पर कुछ पैरों के निशान बने हुए थे। झाला ने रणछोरदास से पूछा बताओ यह पैरों के निशान किसके है और ये लोग अभी कहाँ होंगे। रणछोरदास रबारी ने उन पैरों के निशानों को बड़े गौर से देखकर कहा साहब यहां तीन तरह के पैरो के निशान है, सबसे बड़े निशान पुरुष के है, उसके साथ एक महिला और एक छोटा बच्चा भी है। पुरुष के निशान थोड़े गहरे और दायीं और झुके हुए है, इसका मतलब पुरुष ने अपने दाएं कंधे पर कोई वजन उठा रखा है। महिला के पैरो के निशान दायीं और बायीं तरफ से थोड़े तिरछे है, इसलिए शायद वह महिला गर्भवती होगी। उनके साथ एक बच्चा भी है जिसकी उम्र सात या आठ वर्ष के आसपास होनी चाहिए। ये निशान लगभग दो घंटे पुराने है इसलिए वे यहां से लगभग 10 से 12 किलोमीटर की दुरी पर होंगे।
पुलिस अधीक्षक वनराज सिंह झाला तुरंत इस बात की जाँच करने के लिए अपने वाहन में बैठकर रणछोरदास की बताई दिशा की तरफ रवाना हो गए। 10 से 12 किलोमीटर की दुरी पर उन्हें वह परिवार मिल गया। रणछोरदास के बताये अनुसार उस पुरुष ने एक बक्सा अपने कंधे पर उठा रखा था, उसके साथ वह महिला गर्भवती थी तथा उनके साथ चल रहे उस बालक की आयु सात वर्ष के आसपास थी। यह देखकर वनराज सिंह झाला रणछोरदास के हुनर पर आश्चर्य करने लगे। पुलिस अधीक्षक वनराज सिंह झाला ने रणछोरदास रबारी के हुनर से प्रभावित होकर उन्हें सन 1959 में पुलिस गाइड के पद पर नियुक्त कर लिया, उस समय रणछोरदास रबारी की उम्र 58 वर्ष थी। इसके बाद रणछोरदास रबारी रेगिस्तान के धोरों में पुलिस का मार्गदर्शन करने लगे।
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रणछोरदास रबारी रेगिस्तानी इलाके के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे, रेगिस्तानी रास्तों पर अपनी मजबूत पकड़ के कारण वे कई कई वर्षो तक रेगिस्तान में पुलिस का मार्गदर्शन करते रहे। कुछ वर्ष बाद सन 1965 में पाकिस्तान ने अचानक भारत हमला कर दिया। अचानक हुए इस हमले में भारतीय सरहद पर तैनात अग्रिम मोर्चे की टुकड़ी के 100 भारतीय जवान वीरगति प्राप्त हो गए। इस हमले के बाद पाकिस्तानी सैनिकों ने कच्छ के कुछ इलाकों पर कब्ज़ा कर लिया था। अब युद्ध का आगाज हो चूका था, उस समय के भारतीय थल सेना अध्यक्ष जनरल सैम मानेकशॉ ने सभी भारतीय इलाकों से पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़ने के लिए 10000 सैनिकों की एक टुकड़ी भेजी।
उस समय भारतीय सैनिकों का रेगिस्तान में मार्गदर्शन करने करने के लिए एक गाइड की आवश्यकता थी, इसलिए सबसे पहले रणछोरदास रबारी को ही इस काम के लिए बुलाया गया। रणछोरदास तुरंत इस काम लिए तैयार हो गए। भारतीय सेना की टुकड़ी को कच्छ में मुठभेड़ वाली जगह तक पहुंचने में कम से कम तीन दिन लगने वाले थे। पाकिस्तानी सैनिक भी यह जानते थे की कम से कम तीन दिनों तक तो भारतीय सेना यहाँ नहीं पहुंच सकती, इसलिए वे निश्चिंत होकर बैठे थे। रणछोरस रेगिस्तानी इलाके के अच्छे जानकर थे, इसलिए उन्होंने अपनी सूझबूझ का उपयोग किया, और भारतीय सैनिकों को छोटे रास्ते से ले जाकर तय समय से 12 घंटे पहले ही मोर्चे पर पहुंचा दिया। वहाँ मौजूद पैरों के निशान देखकर रणछोरदास ने भारतीय सेना को यह बता दिया की कुल 1200 के आसपास पाकिस्तानी सैनिक यहाँ छिपे हुए है, साथ ही उन्होंने पाकिस्तानी सैनिकों के छिपने की जगह भी बता दी। भारतीय सैनिकों के लिए इतनी जानकारी काफी थी, उन्होंने अचानक पाकिस्तानी सैनिकों पर हमला कर दिया।
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पाकिस्तानी सैनिकों को उम्मीद भी नहीं थी की भारतीय सैनिक इतनी जल्दी यहाँ पहुंच जाएंगे, अचानक हुए इस हमले से पाकिस्तानी सैनिक घबरा गए। भारतीय हमले में पाकिस्तान के कई सौ सैनिक मारे गए। भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानी सैनिकों को खदेड़ पर इलाके को अपने कब्जे में ले लिया। भारतीय सेना रणछोरदास रबारी के द्वारा दी गयी जानकारी की सटीकता देखकर दंग रह गई। उनके द्वारा बताई गयी पाकिस्तानी सैनिकों की संख्या और छिपने की जगहों की जानकारी एकदम सटीक थी। उनके द्वारा दी गयी जानकारी के कारण भारतीय सेना ने बड़ी आसानी से पाकिस्तानी सेना को खदेड़ दिया था।
रणछोरदास रबारी की इस विलक्षण प्रतिभा से भारतीय थल सेना के प्रमुख जनरल सैम मानेकशॉ अत्यंत प्रभावित हुए। उन्होंने रणछोरदास रबारी के लिए भारतीय सेना में " पागी " के नाम से एक विशेष पद का सृजन किया, जिसका अर्थ होता है रास्ता बताने वाला। इसके बाद जनरल सैम मानेकशॉ रणछोरदास रबारी को रणछोरदास पागी के नाम से बुलाने लगे। अब रणछोरदास पागी भारतीय सेना में शामिल होकर सेना का मार्गदर्शन करने लगे।
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कुछ वर्ष बाद सन 1971 में भारत और पाकिस्तान में फिर से युद्ध छिड़ गया, पाकिस्तान ने सीमावर्ती क्षेत्रों भारी गोलाबारी करना शुरू कर दिया। भारतीय सेना को मोर्चे पर रसद और गोलाबारूद की कमी होने लगी। उस समय रणछोरदास पागी ने मोर्चे पर सेना को गोलाबारूद और रसद पहुंचने में बहुत मदद की, इस काम को करते-करते वे स्वयं भी युद्ध में घायल हो गए परन्तु उन्होंने घायल होने के बावजूद युद्ध के अंत तक भारतीय सेना की मदद की। इस युद्ध में भारतीय सेना ने पाकिस्तान के पालीनगर शहर तक के क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया था। देश के पश्चिमी मोर्चे पर भारतीय सेना को मिली इस जीत में रणछोरदास पागी की एक अहम भूमिका थी। इसके अलावा देश के पूर्वी मोर्चे पर भी भारतीय सेना को युद्ध में जीत मिली थी, भारतीय सेना ने पूर्वी पाकिस्तान को पाकिस्तान से अलग करके एक नया देश बना दिया था, जिसका नाम बांग्लादेश रखा गया।
1971 युद्ध के बाद जनरल सैम मानेकशॉ रणछोरदास पागी के हुनर के कायल हो गए, उस समय जनरल मानेकशॉ बांग्लादेश में थे, उन्होंने ढाका से आदेश दिया की पागी को बुलाओ आज का डीनर मैं पागी के साथ ही करूँगा। जनरल के आदेश पर पागी को लेने के लिए तुरंत एक हेलीकाप्टर रवाना किया गया। पागी को लेकर हेलीकाप्टर कुछ दूर ही उड़ा था, की पागी को याद आया की उनका कुछ सामान निचे घर में ही रह गया है। हेलीकॉप्टर को फिर से निचे उतरा गया। पागी हेलीकाप्टर से उतर कर तेजी से अपने घर में गए और एक पोटली लेकर तुरंत वापस आ गए। सेना के नियमों के अनुसार हेलीकाप्टर में रखने से पहले उस पोटली की जाँच की गयी। सेना के अधिकारी यह देखकर दंग रह गए की उस पोटली में दो रोटी, दो प्याज और लाल मिर्च थी।
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ढाका पहुंचने पर जनरल मानेकशॉ ने पाकिस्तान पर जीत की ख़ुशी में एक भव्य पार्टी का आयोजन किया। ऐसा कहा जाता है जब दावत के समय पागी अपनी पोटली से रोटी निकल कर खाने लगे तब उनकी दो रोटियों में से एक रोटी जनरल सैम मानेकशॉ ने खाई थी। इस युद्ध के बाद जनरल मानेकशॉ ने रणछोरदास पागी को खुद अपनी जेब से 300 रूपए का इनाम दिया था। जनरल मानेकशॉ रणछोरदास पागी को " वन मैन आर्मी एट डेजर्ट फ्रंट " के नाम से बुलाते थे। 1965 और 1971 में रणछोरदास पागी के योगदान के लिए उन्हें संग्राम पदक, पुलिस पदक और समर सेवा पदक देकर सम्मानित किया गया था।
1971 के युद्ध में जीत के बाद जनरल सैम मानेकशॉ को फील्ड मार्शल के पद पर पदोन्नत किया गया। फील्ड मार्शल 5 स्टार धारण करने वाले जनरल होते है। फील्ड मार्शल कभी भी अपने पद से रिटायर नहीं होते वे आजीवन अपने पद पर बने रहते है।
1971 के युद्ध के बाद भी रणछोरदास पागी रेगिस्तान में सेना का मार्गदर्शन करते रहे। उन्होंने अपने जीवन काल में कई पाकिस्तानी घुसपैठियों को धर दबोचने में सेना की मदद की, उनके रहते थार के रेगिस्तान में कोई पाकिस्तानी घुसपैठिया अधिक दिनों तक छिपा नहीं रह सकता था। रणछोरदास पागी के हुनर के कारण पाकिस्तानी सेना इतनी अधिक परेशान हो चुकी थी की उन्होंने रणछोरदास पागी के सिर पर पचास हजार रुपयों के इनाम घोषणा कर दी थी।
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फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ रणछोरदास पागी को अपना मित्र मानते थे, वे अपने जीवनकाल काल में कई बार रणछोरदास पागी से मिलने आया करते थे। सन 2008 में भारतीय सेना के प्रथम फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ का निधन हो गया। कहा जाता है फील्ड मार्शल अपने अन्त्तिम समय में भी रणछोरदास पागी को याद कर रहे थे। फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ की मृत्यु के बाद अगले साल सन 2009 में रणछोरदास पागी ने 108 साल की उम्र में भारतीय सेना से स्वैछिक सेवानिवृति ले ली, इसके बाद 2013 में भारत माता के इस निराले सपूत ने हमेशा के लिए दुनिया को अलविदा कह दिया।
रणछोरदास पागी ने अपने जीवनकाल में देशभक्ति, शौर्य, वीरता, त्याग और देश के प्रति अपने समर्पण का अद्भुद उदाहरण प्रस्तुत किया। वे भारत के ऐसे पहले नागरिक थे, जिन्हें कोई सैन्य सम्मान दिया गया था। उनके जैसी विलक्षण प्रतिभा के धनी लोग विरले ही होते है। आज उनकी शौर्य गाथाएँ गुजरात के लोकगीतों का हिस्सा बन चुकीं है, जिससे उन्हें चिरकाल तक याद रखा जायेगा। भारतीय सेना में भी उनके योगदान को बड़े सम्मान साथ याद किया जाता है। उनके सम्मान में गुजरात में कच्छ-बनासकांठा अंतर्राष्ट्रीय सिमा के पास सुईग्राम की BSF बॉर्डर पोस्ट को रणछोरदास पोस्ट नाम दिया गया है, साथ ही वहाँ उनकी मूर्ति भी स्थापित की गयी है। भारतीय सेना के इतिहास में ऐसा पहली बार किया गया की किसी नागरिक के नाम पर सेना की पोस्ट का नाम रखा गया हो। आज रणछोरदास रबारी जिन्हें रणछोरदास पागी के नाम से जाना जाता है, भारतीय सेना के इतिहास में हमेशा के लिए अमर हो चुके है। भारत माता ऐसे वीर सपूत को हम शत शत नमन करते है।
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